वो विचारक जो कहता था, 'ईश्वर मर चुका है!' (2023)

नीत्चा हिटलर का वैचारिक गुरू था?

वो विचारक जो कहता था, 'ईश्वर मर चुका है!' (1)

55 की उम्र में ही गुज़र गए नीत्चा. (फोटो - गेटी)

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"ईश्वर मर चुका है. ईश्वर मरा पड़ा है. हमने उसकी हत्या कर दी. हम, हत्यारों के हत्यारे, कैसे ख़ुद को दिलासा देंगे? इस दहर में जो सबसे पवित्र और सबसे ताक़तवर था, उसे हमने अपने चाकुओं से गोदकर मार डाला है... क्या इस कृत्य की महानता हमसे परे नहीं है? सिर्फ़ इसके लायक़ दिखने के लिए ही सही, क्यों न हम ख़ुद ईश्वर बन जाएं?"

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ये एक मशहूर कोट है. जिसे आपने कई बार देखा होगा, प्रभावित हुए होंगे, तो शेयर किया होगा. लेकिन कम ही बार हो पाता है कि हम ऐसी किसी हैरतअंगेज़ बात पर ठहरकर सोचें. हम, कमीज़ प्रेस करके दफ़्तर जाने वाले लोग; EMI भरने वाले लोग; सोशल मीडिया पर ज़िंदगी भुना देने वाले लोग; हम ईश्वर का क़त्ल करके ईश्वर बनने की कोशिश कर रहे हैं?

फ़्रेडरिक नीत्चा ट्विटर पर होते, तो कम्युनिटी गाइडलाइन्स के उल्लंघन के लिए उनका अकाउंट सस्पेंड हो जाता. कोई लीगल रिक्वेस्ट आ जाती कि भैया ने शांति-व्यवस्था में ख़लल डाल दिया. अमेरिका में उन्हें तूल मिल जाता, तो कैंसल कर दिए जाते. और, भारत में तूल पकड़ते, तो कूट दिए जाते. पाकिस्तान में भी. मुमकिन है, फ़्रांस और इज़रायल में भी. मगर संवाद के तौर पर इंगेज करना चाहें, तो नीत्चा भरपूर दिलचस्प आदमी हैं. एक व्यक्ति, जिसके पिता पादरी थे, वो दावा कर रहा है कि ईश्वर मर चुका है. कमउम्र में प्रोफ़ेसर बना, लेकिन जल्दी ही नौकरी छोड़ गया. बीमारी हो गई और 55 की उम्र में इंतकाल हो गया. ये पढ़कर भगवान में मानने वाले कह सकते हैं, 'और ले भगवान से पंगा!'

कौन थे फ़्रेड्रिक नीत्चा?

हिंदी पढ़ने वालों ने नीत्चा को नीत्शे नाम से पढ़ा होगा. क्लासिक हिंदीकरण. ख़ैर नामों के साथ न्याय करना चाहिए. जो है, वही कहना चाहिए. तो, नीत्चा.

औद्योगिक क्रांति का चरम और राजनीतिक-आर्थिक उपद्रव की शुरुआत. फ़्रेडरिक विलह्म नीत्चा का जीवन और चिंतन इस बीच के समय का है. 1844 में जर्मन राज्य सैक्सनी के रोकेन शहर में जन्म हुआ था. पिता पादरी थे. मां, पहले शिक्षिका थीं. कुल तीन भाई-बहन थे. एक छोटी बहन और एक छोटा भाई. अभी पांच ही साल के हुए थे कि पिता गुज़र गए. छह महीने बाद, छोटा भाई लुडविग गुज़र गया. वो केवल दो साल का था. मां और बहन के साथ नौम्बर्ग चले गए. नानी और दो अविवाहित बुआओं के साथ रहने. 1856 में नानी की मौत हो गईं. फिर परिवार नौम्बर्ग के एक घर रहने लगा: 'नीत्चा-हॉस'. जो आज की तारीख़ में एक संग्रहालय और नीत्चा स्टडी सेंटर है.

बतौर स्टूडेंट, ब्रिलिएंट रहे. ग्रीक भाषा पर असाधारण अधिकार था. कविताओं और संगीत में भी दिलचस्पी थी. इसी बीच पढ़ना शुरू किया. कुछेक पढ़े-लिखों से मिले. कवियों-चिंतकों की सोहबत ली. 20 की उम्र तक फ़्रेडरिक ईश्वर पर अपना विश्वास खो चुके थे. यूरोप में विज्ञान और भौतिकवाद का उदय, इमैनुएल कांट जैसे विचारकों का भौतिकवाद-विरोधी दर्शन, डार्विन की थियरी और परंपरा और अधिकार के ख़िलाफ़ सामान्य विद्रोह का उन पर गहरा असर था. घुड़सवार बनने वाले थे. प्रशियन आर्टिलरी डिवीज़न में दाख़िला भी करवा लिया था, लेकिन एक सवेरे घोड़े पर बैठते वक़्त चोट लग गई. दो मसल्स फट गईं. महीनों तक चल नहीं पाए. रिकवर हुए, तो घोड़ा नहीं चला पाए.

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इसके बाद 1869 में बेस्ल यूनिवर्सिटी में भाषाशास्त्र के प्रोफ़ेसर बन गए. मात्र 24 साल की उम्र में. न डॉक्टरेट था, न कोई टीचिंग सर्टिफ़िकेट. लेकिन एक सज्जन मेहरबान थे और उन्हें नीत्चा में टैलेंट दिखता था. प्रफ्सरी के दौरान ही अपनी पहली और दूसरी किताब लिखी -- 'द बर्थ ऑफ़ ट्रैजेडी' और 'ह्यूमन, ऑल टू ह्यूमन'. इस समय भी इतिहासकारों, फलसफियों और कलाकारों की संगत में थे. दूसरी किताब में ही फ़्रेडरिक नीत्चा ने अपनी दार्शनिक साख की नींव रख दी. फिर 1879 में एक मानसिक डिसऑर्डर के चलते इस्तीफ़ा दे दिया. नौकरी छोड़कर लगे भटकने स्विटज़रलैंड और इटली में. बेसल यूनिवर्सिटी की पेंशन और दोस्तों की मेहरबानी के सहारे गुज़ारा था. एकाध जगह दोबारा प्रोफ़ेसर की पोस्ट के लिए अप्लाई किया, लेकिन ईसाइयत और यीशू के लिए उनके रवैये की वजह से नौकरी नहीं मिली. चुनांचे एकाकीपन में जीवन बीता. और, इसी समय उन्होंने एक के बाद एक किताबें लिखीं और छपवाईं: 'द गे साइंस', 'दस स्पोक ज़राथूस्ट्रा', 'बियॉन्ड गुड ऐंड ईविल', 'ऑन द जिनीलॉजी ऑफ़ मोरैलिटी' और 'द विल टू पावर'. इसके अलावा कुछ ज़रूरी निबंध और रिसर्च पेपर भी लिखे.

डिस्क्लेमर: डीप बातें होने जा रही हैं

इंटरनेट पर काले बैकग्राउंड में सफ़ेद फ़ॉन्ट से कुछ भी लिखकर ग़ालिब या हरिवंश राय बच्चन के नाम से लिख दिए जाने की पुरानी प्रथा है. वैसे तो नीत्चा का क्राउड सीमित है, लेकिन वो भी इस सितम से अछूते नहीं हैं. भतेरे कोट्स हैं, जो उनके नाम से ठेले जाते हैं.

दर्शन में घुसने से पहले दो-एक बातें जान लीजिए. 'मैं क्या हूं? क्यों हूं? कैसे यहां आया? कहां चला जाऊंगा?' ये दर्शन के मूल प्रश्न हैं. जो दुनिया हमारे सामने हैं और जो हमारे भीतर है, इन प्रश्नों का दोनों दुनियाओं से बराबर ताल्लुक़ हैं. और, ये सवाल आज से नहीं हैं. बहुत पहले से हैं. सनातन धर्म के छह दर्शन हों या बुद्ध की सीख. सबमें, जीवन और दुनिया पर ही मनन किया गया है. लंबे समय तक, विधि और विधान की संकल्पना ने इन सवालों के आसान जवाब दिए. मसलन-

- तुम क्या हो? ईश्वर की गुमराह भेड़ें.
- क्यों हो? साधना से पता चल जाएगा.
- कहां से आए? कृपा से.
- कहां जाओगे? ईश्वर के शून्य में.

दुनिया इन सवालों के सरल जवाबों के साथ कंफ़र्टेबल थी. सबकी मौज में कट रही थी. कुछ लोग तब भी थे जिन्हें चैन नहीं था, लेकिन वे बहुत प्रचलित नहीं थे. फिर 17वीं शताब्दी में यूरोप में चिंतन शुरू हुआ. विज्ञान और तर्क ने ईश्वर और चर्च की परंपराओं को चुनौती दी. तब तक धर्म या मज़हब का अच्छा बोलबाला हो गया था. राज्य और चर्च की सांठ-गांठ थी. और, इतब दीन पर उठ रहे इन सवालों ने लोगों के मन में एक कंकड़ छोड़ दिया. इसी कंकड़ का नतीजा और कारक है नीत्चा.

नीत्चा का फ़सलफ़ा

नीत्चा के भीतर ईश्वर का नकार शुरू तो एक भावनात्मक ख़ला से हुआ, लेकिन पठन-पाठन के साथ उन्हें इस बात के पर्याप्त तर्क मिले कि ईश्वर पर विश्वास केवल चैन-सुकून देता है; जवाब नहीं. उन पर जर्मनी के ही निराशावादी दार्शनिक आर्थर शोपेनहॉवर का बहुत असर था. शोपेनहॉवर का भी चिंतन बहुत बृहद है. एक पंक्ति में समेटना हो, तो शोपेनहॉवर कहते थे: 'अगर मनुष्य के पास कोई अंतिम उद्देश्य या औचित्य न हो, तो वो बहुत पीड़ित होने के लिए बाध्य है और जीवन वास्तव में जीने लायक़ नहीं है.'

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नीत्चा का नास्तिक अस्तित्ववाद (atheistic existentialism), व्यक्तिवाद यानी individualism पर आधारित है. वो कहते थे,

“जब से बाइबल आई, त्रासदी शुरू हो गई. जब से ईश्वर है, लोग ईश्वर की कठपुतली हैं. तो ज़रूरी है कि बाइबल और ईश्वर को हटाया जाए. ताकि लोग अपने जीवन की ज़िम्मेदारी ख़ुद लें और दुनियावी माया में ख़र्च होने के बजाए ज़रूरी सवालों पर चिंतन करें. अपने अस्तित्व की फ़िक्र करें.”

और, यहां अस्तित्व से मुराद केवल सांस लेने तक सीमित नहीं है. अस्तित्व का मतलब है अस्तित्ववादी सवालों से जूझना. ईश्वर की मौत का एलान भी उन्होंने इसलिए किया, कि जब तक लोग ये मानते रहेंगे कि कोई पालनहार है, जो सब ठीक कर देगा. तब तक लोग निर्भर रहेंगे; ख़ुद कुछ नहीं करेंगे. दो तरह की नैतिकताओं के बारे में लिखा नीत्चा ने - मालिक नैतिकता और दास नैतिकता. धार्मिक उपदेशों से निकलती है दास नैतिकता, जो मनुष्य में भेड़ों वाली मानसिकता डालती है. और मालिक नैतिकता, कुछ अलग करने को प्रेरित करती है. अलग-अलग व्याख्याओं से होते हुए, इस सिद्धांत में कुछ एलिमेंट्स बहुत प्रॉब्लमैटिक भी हैं. क्यों?

नीत्चा के 'उबरमेंच' - जिसे अंग्रेज़ी में अपर-मैन, सुपरमैन या बियॉन्ड-मैन भी कहते हैं - की अलग-अलग और बहुत घातक व्याख्याएं हुई हैं. पहले ये कॉन्सेप्ट कहता क्या है, वो जान लीजिए. फिर बताते हैं कि घातक कैसे हुआ.

क्या कहता है नीत्चा का उबरमेंच?

आपका बेस्ट वर्ज़न कैसा होगा? और, वैसा होने के लिए आप क्या करेंगे? क्या आपका 'बेस्ट' सबसे तेज़-तर्रार, सबसे ताक़तवर, सबसे दयालु, मज़ेदार, बुद्धिमान, कलात्मक और सबसे ज़्यादा अनुशासित व्यक्ति है? नीत्चा का कहना है, नहीं. आपका बेस्ट वो होना चाहिए जो आप तय करें. उबरमेंच वो है, जो पूरी तरह जीवन जिये. रास्ते में आने वाली हर चीज़ को 'हां' कहे. अपने हालात और ख़ासियत को एक सुंदर, सशक्त, परमानंद में ढाल सके. जो अपने पूरे पोटेंशियल को साध सके. एक आदमी, जो अच्छे और बुरे की अवधारणाओं से परे चला गया है और केवल उन मूल्यों-क़ानूनों का पालन करता है, जो उसने ख़ुद अपने लिए तय किए हैं. इस कॉन्सेप्ट से नीत्चा, केवल रूढ़िवादी मज़हबी मूल्यों को एक रिप्लेसमेंट नहीं देना चाहते थे. वो रैडिकल सुधार का एक ख़ाका दे रहे थे.

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अपना उद्देश्य तय करने के लिए, नीत्चा ने इंसान के दिमाग़ को तीन स्तरों में तोड़ा - ऊंट, शेर और बच्चा.

> ऊंट मतलब: "सब कुछ मेरी पीठ पर लाद दो. सब सुख, दुख और ज्ञान." हम ऊंट होने से शुरू करते हैं. कॉलेज में मन लगा कर पढ़ते हैं. जितना संभव हो, दुनिया को समझने की कोशिश करते हैं. इतना ज्ञान है, इतने महान दिमाग़ हैं. हमें सब खाना है. और जितना हम भरते हैं, हमारी पीठ उतनी ही भारी हो जाती है. लेकिन रेगिस्तान की यात्रा बहुत अकेली है. ऊंट के मन में इन बोझों को उठाने की इच्छा घटने लगती है. उसे ज्ञात होने लगता है कि जीवन का कोई एक अर्थ नहीं है. एक पॉइंट के बाद, ऊंट की आत्मा अब उन विचारों और ज्ञान का बोझ नहीं उठाना चाहती, जो उसके अपने नहीं हैं.

> फिर आता है शेर. शेर को आज़ाद होना है. लेकिन उसके रास्ते में एक ड्रैगन है. नीत्चा के लिए ये ड्रैगन धर्म, सरकार, माता-पिता या वो कोई भी है, जो कहता - "ये तुम्हारा मक़सद है और तुम्हें यही करना है." ड्रैगन की धारियों पर 1000 साल के मूल्य चमक रहे हैं. ड्रैगन विशाल है. लेकिन शेर, अब ऊंट नहीं रहा. शेर दहाड़ता है और ड्रैगन को मार देता है. ये नीत्चा के नक्कार का एक ऐक्ट है.

> शेर के बाद व्यक्ति बच्चा बनता है. बच्चे के सामने एक नई, ताज़ा शुरुआत है. वो समाज के नियमों और रूढ़ियों से मुक्त है और अपने लिए अर्थ खोजने के लिए आज़ाद है. जैसा नीत्चा कहते हैं, “बच्चा मासूमियत है, विस्मृति है. एक नई शुरुआत, एक खेल, एक ख़ुद से चलता पहिया, एक पहली गति, एक पवित्र हामी.”

लेकिन ये जितना में आज़ाद-ख़्याल पसंद लग रहा है, उतना है नहीं. कइयों ने अपने तईं इसकी व्याख्या की और अपराध करने के लिए इस विचारधारा का हवाला दिया. कहानियां तो ये भी हैं कि हिटलर ने नीत्चा के ख़यालों से प्रेरणा ली और एक नया क़ायदा बनाना चाहा. हालांकि, दार्शनिक और इतिहासकारों का दावा है कि हिटलर ने कभी नीत्चा को पढ़ा ही नहीं था. लेकिन फिर भी. विरोध वाजिब है. नियम-क़ानून न मानना, और अपने क़ानून बनाना. इससे तो समाज में कोई ऑर्डर बचेगा ही नहीं. सब अपने मन की चलाने लगेंगे. लेकिन नीत्चा ने समाज या व्यवस्था की क़ीमत पर आज़ादी को महत्ता दी. उनका मानना था कि इंसान आज़ाद होगा, तो समाज बढ़ेगा.

नीत्चा अनपॉपुलर ओपिनियन के अव्वल थे. उन्होंने तो आउट-रेजियस होने की हद तक की बातें कही हैं. लेकिन नीत्चा का मर्म समझिए. नीत्चा ने हदें हटाने की बातें ही कही थीं. सोच की हर परत को खोलकर सोचना. बने-बनाए ढर्रों को हटा कर सोचना. हमने आपको नीत्चा की दुनिया में घुसने की कुंजी दी है. आगे आपको बढ़ना है. आपको पढ़ना है. नीत्चा की दुनिया में घुसने के लिए पीटर गे और वॉल्टर हॉफ़मैन की किताब 'बेसिक राइटिंग्स ऑफ़ नीत्चा' से शुरू कर सकते हैं.

वीडियो: तारीख: 'इब्न बतूता, पहन के जूता', जान बचाकर दिल्ली से क्यों भागे?

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Author: Margart Wisoky

Last Updated: 01/11/2023

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